Amaresh Saurabh
हिंदी भाषा किस तरह देश-दुनिया में अपना दायरा और ज्यादा बढ़ा सके, इस पर विचार करने का वक्त आ गया है. आखिर विश्व हिंदी दिवस (10 जनवरी) मनाए जाने का मकसद ही यही है. वैसे तो हिंदी थोड़े बदले रंग-रूप के साथ लगातार फलती-फूलती जा रही है. इसके बावजूद, दुनिया के कोने-कोने तक इसके फैलाव के लिए इसे तकनीक के साथ जोड़ना जरूरी मालूम पड़ता है.
वैसे तो हिंदी दिवस हर साल 14 सितंबर को मनाया जाता है. हमारी संविधान-सभा ने 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को देश की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था. हिंदीभाषियों के लिए यह दिन बड़े उत्सव जैसा होता है.
जहां तक विश्व हिंदी दिवस की बात है, यह 10 जनवरी को मनाया जाता है. इसका उद्देश्य भी साफ है- दुनियाभर में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए जागरूकता पैदा करना. साथ ही हिंदी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना. दरअसल, हिंदी को बढ़ावा देने के लिए पहला विश्व हिंदी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित किया गया था. इसे दिवस के तौर पर मनाने के लिए 10 जनवरी की तारीख चुनी गई. केंद्र सरकार ने 2006 में हर साल इस दिन को 'विश्व हिंदी दिवस' के रूप में मनाने की शुरुआत की.
आज के दौर में हिंदी के प्रचार-प्रसार को मौजूदा हालात के मुताबिक ही देखना उचित होगा. तभी इस दिवस की सार्थकता साबित हो सकेगी. इसमें तकनीक कहां और कैसे मददगार हो सकती है, इसके कुछ बुनियादी पहलुओं को देखना होगा.
हिंदी का प्रचार-प्रसार बढ़ाने के लिए सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि इस दौर में इंसानों की आदतें किस तरह की हैं. आज दुनिया की बहुत बड़ी आबादी के हाथ में फोन आ चुका है. देश-दुनिया में डिजिटल क्रांति अपने चरम की ओर बढ़ती दिख रही है. हर उमर के लोगों की आंखें घंटों स्क्रीन पर टिकी रहने लगी हैं. घरेलू जरूरत की चीजों से लेकर मनोरंजन, पढ़ाई-लिखाई, बैंकिंग-व्यापार तक, सब कुछ ऑनलाइन हो चुका है.
ऐसे में अगर इस डिजिटल क्रांति के साथ हिंदी को जोड़ने के तरीके निकाल लिए जाएं, तो हिंदी का फैलाव खुद-ब-खुद होता चला जाएगा. एक बार पैटर्न सेट हो जाने के बाद बहुत ज्यादा मशक्कत करने की जरूरत शायद नहीं रह जाए. इसके लिए उन लोगों को आगे आना पड़ेगा, जो हिंदी को अपनी भाषा मानते हैं या जिनके मन में यह कसक है कि हिंदी अपनी प्रतिद्वंद्वी भाषाओं को मात देकर आगे क्यों नहीं बढ़ पाती.
हिंदीभाषियों के सामने कुछ व्यावहारिक दिक्कतें हैं. बड़ी नहीं हैं, पर गौर किए जाने लायक हैं. मोबाइल हो या स्मार्टफोन, अगर इसके भीतर सेव किए गए नाम-पते की बात करें, तो ज्यादातर हिंदीभाषी भी इसे अंग्रेजी में ही लिखना पसंद करते हैं. वजह- इससे सर्च करने में सहूलियत होती है. मैसेज करते वक्त भी कई बार रोमन लिपि वाली हिंदी से काम चलाना पड़ता है. हालांकि आजकल फोन में हिंदी के लिए कई तरह के टाइपिंग टूल मौजूद होते हैं, लेकिन लोग इनका इस्तेमाल करने को प्रेरित नहीं होते.
माने हिंदी टाइप करने में कुछ दिक्कतें हैं, जबकि अंग्रेजी में नहीं. इस वजह से लोग चाहकर भी अंग्रेजी की ओर झुक जाते हैं. हालांकि वॉयस कमांड समझने वाले टूल्स की मदद से इसका समाधान आसानी से हो सकता है. लेकिन पहले लोग हिचक दूर करके, हिंदी को अपनाने की इच्छाशक्ति तो दिखाएं.
गनीमत की बात इतनी-सी है कि फोन पर ठेठ हिंदीप्रेमियों के बीच बातचीत तो फिर भी हिंदी में ही होनी है. लिफाफे पर अंग्रेजी हो तो क्या, अंदर की चिट्ठी तो हिंदी में ही होगी! वैसे उम्मीद है कि आने वाले दिनों में डिमांड के हिसाब से फोन में हिंदी टाइपिंग और भी आसान होती जाएगी. यह बाजार है, जिसे हमारी जरूरतें मालूम हैं.
दुनियाभर में भाषाओं की रैंकिंग को लेकर अलग-अलग एजेंसियों के नतीजे थोड़े अलग हो सकते हैं. इसके बावजूद, हकीकत यही है कि तमाम भाषा-भाषियों के बीच हिंदी टॉप 3 में शामिल है. बाजार के लिए यह बहुत बड़ा आकर्षण है. यही वजह है कि मार्केटिंग कंपनियां अपने प्रोडक्ट के प्रचार-प्रसार के लिए बड़ी तेजी से हिंदी को अपनाती जा रही हैं. हिंदी ही क्यों, इसकी तमाम बोलियां भी अब बाजार को खूब सुहाने लगी हैं.
चाहे हेल्थ ड्रिंक हो या सॉफ्ट ड्रिंक, चॉकलेट हो या डिटर्जेंट, भोजपुरी में डब किए गए इनके विज्ञापन आखिर किन वजहों से छाते जा रहे हैं? ऐसे में अगर हिंदी का मान-आदर बढ़ रहा है, तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं. ई-कॉमर्स कंपनियां भी हिंदीभाषियों की सहूलियत को ध्यान में रखकर ऐप और वेबसाइटें डिजाइन करवाती हैं.
साफ है कि हिंदी से मेल-जोल बढ़ाना बाजार की जरूरत है. इसमें भी तकनीक ही बड़ा रोल अदा कर रही है. यहां सूत्र यही छुपा है कि हिंदी भी बाजार और तकनीक के डैनों पर सवार होकर और ऊंची उड़ान भर सकती है. दुनिया के कोने-कोने में पैठ बना सकती है.
हिंदी के फैलाव में गैजेट्स का रोल बड़ा हो सकता है. हिंदी ही क्यों, किसी भी भाषा को सीखने-सिखाने में लर्निंग ऐप और सॉफ्टवेयर बड़े कारगर हो सकते हैं. आम तौर पर इस तरह के ऐप में ऑडियो-विजुअल सामग्री की भरमार होती है. रोचकता के साथ सीखे गए पाठों के अभ्यास का भी पूरा खयाल रखा जाता है. सीखने की अवधि और समय अपनी मर्जी से तय किया जाना संभव है. खर्च भी कम आता है. सबसे बड़ी बात कि दुनिया के किसी भी कोने में बैठा इंसान इससे आसानी से लाभ उठा सकता है. इन्हीं कारणों से इस तरह के ऐप लोकप्रिय होते जा रहे हैं.
जरूरत इस बात की है कि ऐसे ऐप और सॉफ्टवेयर को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दिया जाए. इन्हें लोकप्रिय बनाया जाए. इसमें सरकारी और गैर-सरकारी, दोनों स्तर पर कदम उठाए जाने की जरूरत है. हिंदी निदेशालय और हिंदी के लिए समर्पित संस्थानों को इसमें ज्यादा से ज्यादा रुचि दिखानी चाहिए. भाषा के प्रचार-प्रसार के परंपरागत तरीकों की तुलना में इसमें मेहनत भी कम है और लागत भी.
हिंदी भाषा के साहित्य का भंडार बहुत ही विशाल है. इसमें नामचीन साहित्यकारों से लेकर नई पीढ़ी के कलम के सिपाहियों तक का भरपूर योगदान है. इस विपुल साहित्य तक अन्य भाषा बोलने-पढ़ने वालों की पहुंच आसान हो सके, इसका इंतजाम करना होगा.
जहां जरूरी हो, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद का भी सहारा लिया जाए. हिंदी साहित्य की डिटिजल लाइब्रेरी तैयार करके हिंदी को दुनियाभर में लोकप्रिय बनाया जाना संभव है. हिंदी में ब्लॉग, आलेख, वीडियो, पॉडकास्ट जैसे डिजिटल कंटेंट उपलब्ध कराना कोई मुश्किल काम नहीं है. संभावना तो भरपूर है ही, बस इसे भुनाए जाने की दरकार है.
यह देखना सुखद है कि बीते एक दशक के भीतर, मशीनों के जरिए हिंदी अनुवाद के स्तर में बहुत सुधार हुआ है. मशीनी अनुवाद का स्तर और ऊंचा करने की कोशिश जारी रहनी चाहिए. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के इस्तेमाल से मनचाहे नतीजे मिल सकते हैं. सोशल मीडिया के कई लोकप्रिय प्लेटफॉर्म अब AI टूल्स से अच्छी तरह जुड़ चुके हैं. इनमें हिंदी को तवज्जो दिया जाना लाजिमी ही है.
कुल मिलाकर, कह सकते हैं कि दूसरी भाषाओं के साथ सामंजस्य बिठाकर चलने वाली हिंदी का भविष्य सुनहरा है. साथ ही हिंदी की पैठ बढ़ाने में डिजिटल उपकरण कारगर साबित होने जा रहे हैं. विश्व हिंदी दिवस की शुभकामनाएं!
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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