हिंदी की बहुत बड़ी ताक़त उसकी रूप बदलने की क्षमता में निहित है। वैसे तो हर भाषा की बहुत सारी शक्लें होती हैं, लेकिन हिंदी इतनी आवाज़ों में और इतने चेहरों के साथ बोली जाती है कि उसके भीतर ही एक बहुभाषिकता चली आती है। सबसे मुख्य तो वह मिली-जुली हिंदी है जिसे महात्मा गांधी हिंदुस्तानी कहने का आग्रह करते थे. इसी भाषा के बारे में दुष्यंत कुमार ने लिखा था कि जब हिंदी और उर्दू अपने सिंहासनों से उतर कर आती हैं तो आम लोगों की ज़ुबान बन जाती है. प्रेमचंद की ज़्यादातर कहानियां इसी हिंदी की हैं. हिंदी का एक ठाठ पुरबिया हिंदी से बनता है जिसमें पूर्वांचल का लोकरंग शामिल रहता है- भोजपुरी-मागधी-मैथिली की छौंक के साथ. एक साहित्यिक संस्कृतनिष्ठ हिंदी भी है जो हालांकि बहुत संदेह से देखी जाती है क्योंकि इसका अतिरेकी शुद्धतवाद कई बार लगभग आत्मघाती हो उठता है.
बेशक इसमें भी कई श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियां हैं. ख़ास कर जयशंकर प्रसाद के नाटकों ‘चंद्रगुप्त' और ‘ध्रुवस्वामिनी' में और मोहन राकेश के ‘आषाढ़ का एक दिन' में इस हिंदी का वैभव दिखाई पड़ता है- छायावादी कविताओं में भी. लेकिन एक संस्कृतनिष्ठ हिंदी है तो एक उर्दू की हमजोली हिंदी भी है. यह हिंदी बिल्कुल उर्दू है या यह उर्दू ही हिंदी है. आम बोलचाल की भाषा में हम अनजाने में इसी हिंदी का प्रयोग करते हैं- तब हम ‘प्रयोग' नहीं, ‘इस्तेमाल' बोलते हैं, ‘प्रयास' नहीं, ‘कोशिश' करते हैं. इसी हिंदी के महबूब कवि शमशेर बहादुर सिंह ने लिखा था- ‘मैं हिंदी और उर्दू का दोआब हूं / मैं वो आईना हूं जिसमें आप हैं.
एक हिंदी दक्कनी हिंदी है जिसके सबसे बड़े शायर वली दक्कनी रहे. बेशक उन्हें उर्दू वाले अपना मानते हैं, लेकिन वे जो ज़ुबान लिखते हैं- वह ठेठ हिंदी वाली ही है- ‘तुझ लब की सिफ़त लाल बदख्श़ां सूं कहूंगा / जादू है तेरे नैन ग़जाला सूं कहूंगा.
एक हिंदी मुंबइया हिंदी है जिस पर मराठी गुजराती का असर है. ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस' और ‘लगे रहो मुन्ना भाई' जैसी फिल्मों में इसका शानदार इस्तेमाल मिलता है.
एक सरकारी और अदालती हिंदी भी है जो अनुवाद की कंकड़दार भाषा में प्रगट होती है और मुंह का ज़ायक़ा भी बिगाड़ देती है. दरअसल, यही हिंदी है जो सरकारी दफ़्तरों में इस्तेमाल की जाती है और ये भ्रम पैदा करती है कि हिंदी तो इतनी दुरूह भाषा है कि वह समझ में नहीं आती. फिर उसे आसान बनाने की मुहिम की ज़रूरत बताई जाती है। दरअसल भाषा न आसान होती है न मुश्किल होती है, वह सहज होती है. शब्द कई बार प्रचलित या अप्रचलित होते हैं, लेकिन वे बदलते रहते हैं। जैसे कभी सूनामी हमारे लिए बहुत अप्रचलित शब्द था लेकिन अब वह एक जाना-पहचाना शब्द है, बल्कि हिंदी के मुहावरे में बदल चुका है.
एक और हिंदी का चलन इन दिनों मीडिया में बढ़ा है जिसमें अंग्रेज़ी शब्दों के इस्तेमाल पर ज़ोर है. यह हिंदी लेकिन अमूमन बहुत सपाट और स्मृतिविहीन जान पड़ती है. हिंग्लिश कहलाने वाली यह हिंदी दरअसल हिंदी की सबसे कमज़ोर शाखाओं में है और इसमें हमारे मीडिया की कुछ दुर्गति भी झांकती है. तो इतनी सारी हिंदियां हैं जिनमें कई भाषाओं का रंग है, कई बोलियों की परत चढ़ी हुई है. मुश्किल यह है कि हिंदी को दूसरी भाषाओं और बोलियों से लड़ाने का काम चल रहा है. हिंदी-उर्दू को पहले ही अलग किया चुका, तमिल-मराठी-बांग्ला में हिंदी के प्रति शिकायत सार्वजनिक है. लेकिन हिंदी को सबसे ज़्यादा ख़तरा उन शुद्धतावादियों से है जो एक ही तरह की हिंदी चाहते हैं, संस्कृतनिष्ठ हिंदी चाहते हैं और बाक़ी सबको पराया मानते हैं. बोलियां मेलजोल से बनती हैं- हिंदी भी बनी है. इसे बचाए रखना चाहिए.
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Reported by: आईएएनएस, Edited by: तिलकराज© Copyright NDTV Convergence Limited 2025. All rights reserved.